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आभार-स्वीकार / अजित कुमार

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‘दर्द’ तुमने कहा जिसको

और यों दुखती हुई रग जान ली

मैंने अभी तक सहा जिसको ।

उसीको-

हाँ, छिपाने के लिये उसको

गीत गाये थे,

अधूरे और पूरे गीत गाये थे ।


जान ही जब लिया तुमने

शेष और भला बचा क्या ।

दर्द के अतिरिक्त हमने

सहा याकि रचा भला क्या ।

कहीं कुछ भी नहीं :
केवल प्यास, केवल आग ।
धब्बे, चिन्ह, बेबस दाग

यही थे-

जिनको बहाने के लिये आँसू छिपाये थे ।


तुम्हींने यह भी कहा था-

‘मिटाने पर मिट न जाये
दर्द यह ऐसा नहीं है ।
शर्त लेकिन एक है-
उस दर्द में मत रमो ।
देखो।
पाल खोलो, उठाओ लंगर,
चलो-
दुखती हुई रग के सदृश यह द्वीप त्यागो ।‘

तुम्हींने हमसे कहा था-

‘अरे, जागो ।‘


और उस कहने तथा

खुद भी बहुत सहने के कारन

मुक्ति की जब घड़ी आई-

स्वत: बन्दी बना था जिस द्वीप में
उससे विलग हो, पाल खोले
मुक्त नाविक ने
उधर … उस द्वीप को जाती लहर पर

पुष्प अंजलि से बहाये थे ।


आज वह सब व्यक्त है

जिसको छिपाने के लिये …

छिपा देने के लिये कुल गीत गाये थे ।

आज सचमुच मुक्त है

जिसको बहाने के लिये …

बहा देने के लिये आँसू छिपाये थे ।

आज तो वह त्यक्त है

वह दर्द भी : वह द्वीप भी …

वही जिस तक पुष्प अंजलि से बहाये थे ।