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कलाकृति,आत्मविस्मृति और प्रकृति-2 / अजित कुमार

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आत्मविस्मृति


पर्वतश्रेणी ।

शीत हवाएँ ।

कोहरे-पाले,

रूई के गाले-सी हिम

से ढँका, मुँदा वह पर्वत-देश ।

श्वेत श्रृंग—

जिनको आकांक्षा छूती धर जलधर का वेश ।


उन्हीं उच्च लक्ष्यों पर

बढती हुई एक कोई छाया,

ऊपर ही ऊपर को

चढती हुई एक कोई काया ।

--पर्वतआरोही की काया ।


वह पर्वतआरोही ।

मैं हूँ जो

मैदान, नदी, टीले, कछार, घाटियाँ पारकर

आया हूँ ।

ऊँचे पर्वत की चोटी छूने को आया हूँ ।

(:आर्टगैलरी में पर्वत का चित्र देखकर आया था,

उस क्षण मेरे मन में ऐसा अद्भुत भाव समाया था ।)