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पृथ्वी सोच रही है / शंकरानंद

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ये जो चारों तरफ़ की हवा है
भर गई है उन पैरों की धूल से
जो इस पृथ्वी पर सबसे अकेले हो गए हैं

वे असँख्य लोग हैं
जो हार गए अपनी ही ज़िद से
जीने की लालसा लिए
वे दर-दर भटकते हुए
खोजते रहे
सूखते कण्ठ के लिए बून्द-भर पानी
बैठने के लिए बित्ते-भर का आसरा

हद है कि वह पानी
न घर में मिला
न हज़ारों मील दूर
किसी चमकदार शहर में

जहाँ समुद्र का किनारा था
जहाँ छल-छल नदी बहती थी
जहाँ सबसे अमीर लोग रहते थे
जहाँ इस देश की संसद थी

वहाँ वे सबसे ग़रीब बनकर
बस, जी लेना चाहते थे
तब तक
जब तक कि मौत की हवा
वसन्त में नहीं बदल जाती
हद है कि इतना मौक़ा भी उन्हें नहीं दिया गया

वे कुछ नहीं बचा सके
जो अपनी दुनिया
कन्धे पर लादकर
चलने का हौसला रखते थे
जो जानते थे
पत्थर और लोहे को तोड़ने की अचूक कला
वे मनुष्य होकर भी हार गए मनुष्य से

उनके लिए
हर दीवार सबसे मजबूत सीमेण्ट से बनी है
हर दरवाज़ा सबसे मजबूत लोहे का
खिड़कियों से झाँकता है अन्धेरा
जो देखना चाहता है तसल्ली के लिए
कि बस वे चले जाएँ

ये समय इतिहास का सबसे भयानक समय है
जब एक मनुष्य
दूसरे मनुष्य के बच जाने के लिए प्रार्थना नहीं करता
उन्हें मौत के मुँह में जाते देखता है
ठीक उसी तरह जैसे कोई फ़िल्म चल रही हो
जैसे कोई तमाशा शुरू हुआ हो
और ताली बजने वाली हो

ये पृथ्वी अब सोच रही है कि
मैं आख़िर घूम किसके लिए रही हूँ ।