भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुनौला घाम झुल्केन / किरण खरेल

Kavita Kosh से
Sirjanbindu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:23, 10 मई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=किरण खरेल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGeet}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुनौला घाम झुल्केन रूपौला जून चम्केन
मेरो सुनसान जीवनमा कुनै वसन्त फर्केन

कति रात छट्पटाएँ म अँध्यारोलाई बोकेर
मेरो जून जग्मगाएन जूनेली हाँसो पोखेर
दियोको बत्ती सल्केन नयनको ज्योति झल्केन
मेरो सुनसान जीवनमा कुनै वसन्त फर्केन

कति फूल फुल्न खोजेथे मुटुको फूलबारीमा
खुशीले बस्न खोजेथ्यो मायाको त्यो छहारीमा
वसन्ती वास आएन रसिलो रङ्ग छाएन
मेरो सुनसान जीवनमा कुनै वसन्त फर्केन