अनिश्चितता / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'
चाहती हूँ
पलट कर देखना
पाताल के तल को
ज़मीन पर औंधे पड़े
आकाश को
हवाओं में उड़ते हुए
पानी को
तलैया में बाँध कर रखी
हवाओं को
चाँद पर मजबूती से लटकी
पेड़ की जड़ों को
फलों की जगह लटकते
दहकते सूरज को
इंसानी जमात के
उल्टे हो चुके पांवो को
भूख का बवाल समझतीं
पेट पर उगी पापी आँखों को
चाहती हूँ
जलते हुए देखना
अपनी ही आग में आग को
देखना चाहती हूँ
बुझते हुए
नदी की प्यास को
मेरी सारी चाहतें
बिल्कुल ऐसी ही हैं
जैसे मुर्दा जिस्म ने अचानक
ली हो हिचकी
और किया हो याद
भगवान को छोड़ किसी शैतान को
चाहती हूँ मुखौटों का
हस्तांतरण रद्द हो जाए
अशांत दुनिया में शांति की
गुहार भूत-प्रेतों द्वारा लगाई जाए
मैं डर कर ही सही
उलट-पलट कर रख दूँ
सीधी पड़ी घटनाओं को
अकल्पित शब्दों का
विन्यास हटा कर
लिख दूँ एक कविता जो
कोई अर्थ न निकालती हो
मैं चाहती हूँ
अर्थहीनता का कोई अंश
बोध करा दे कि मैं
इस तरह की हनक से
कभी कोई
महत्त्वपूर्ण कविता नहीं लिख सकती
क्या सचमुच
मुझ पर
अनिश्चितता का
यह दौर
इस तरह हावी हो चुका है!