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जब भी तेरा ख़याल / नमन दत्त

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जब भी तेरा ख़याल आया है।
रूबरू तुझको अपने पाया है।

तेरी नज़र को जानता हूँ मैं,
मुद्दतों तक फ़रेब खाया है।

शबे-फ़िराक़ तेरी यादों ने,
तीरगी में दिया जलाया है।

ये तो क़दमों की चाप है शायद,
कौन मेरे क़रीब आया है?

देखकर शहर का ये तल्ख़ निज़ाम,
दश्त में हमने घर बनाया है।

वो जो मुँह फेर कर गुज़रता है,
क्या बताऊँ कि मेरा साया है।

दीनो-मज़हब भी शर्मसार हैं आज,
किसने किसका लहू बहाया है।

तेरी ग़ज़ल है जामे-मय "साबिर"
बेपिये इक नशा-सा छाया है।