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कैसा भेस बनाया, जोगी / सुरेश सलिल

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कैसा भेस बनाया, जोगी !
अंग भभूत रमाया, जोगी !

सब चेहरों को देखा परखा
कोई रास न आया, जोगी !

सबके अपने अपने टण्टे
सारा जग बौराया, जोगी !

गोर<ref>क़ब्र</ref> किनारे आकर, आख़िर
धूनी को परचाया, जोगी !

हिज्र<ref>वियोग</ref> विसाल<ref>मिलन</ref> एक रंग अब तो
खुसरो के घर आया जोगी !

शब्दार्थ
<references/>