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किरन पंखिया भोर / कृष्ण शलभ

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फिर आ बैठी आज तुम्हीं-सी
किरण पंखिया भोर बगल में ।

चाय लिए गुनगुनी धूप की
बैठी मेरे पास पी रही
बीते हुए समय की बातें
एक-एक कर संग जी रही
वो भी सब कुछ याद दिलाया
जो बीता था ताजमहल में ।

तुम सुगन्ध का झरना हो यह
मैंने कहा, बड़ी शरमाई
फिर फूलों की बात चली तो
कह कर उठी, अभी मैं आई
और लपक कर ले आई, कुछ
फूल मोगरे के आँचल में ।

छीन लिया अख़बार हाथ से
बोली — इसे बाद में पढ़ना
झटपट ज़रा नहा लो देखो
है बाज़ार आज तो चलना
बर्तन ढेर पड़े हैं, पानी
अभी-अभी आया है नल में ।