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अतीत की प्रतिध्वनि / रेखा राजवंशी

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वर्तमान जब अतीत में बदलता है
 तो न मैं, न तुम, न कोई और ही
 समूचा रह पाता है ।

 एक भाग जीवन का
 चाहे छोटा सा हो
 चाहे हँस के बीता हो या रो के
 महकते हुए गुलाब की तरह
 या चुभते हुए कांटे की तरह
 बस के रह जाता है
 मानस पटल में ।


 क्या हम बीनते नहीं रहते
 सीपें सागर तट पर?
बनाते नहीं रहते घरौंदे
 तन्हाई में खेलने के लिए?
क्या हम जलाते नहीं रहते दीप
अँधेरे में रौशनी की
एक किरण पा लेने के लिए?


रिश्ते, चाय के प्याले की तरह
 बासी नहीं होते
 बस जाते हैं, मनो-मस्तिष्क में
 बरसों तक आँगन में खिली
 तुलसी की तरह।


 मिलन का अंत सदैव विरह है
 परन्तु विरह उपलब्धि है
 खट्टी-मीठी स्मृतियों की
 खाली झोली भर उठती है
 फिर अतीत की प्रतिध्वनि
 बरसों तक गूंजती रहती है
 और जाने कब वर्तमान
अतीत बन जाता है ।