भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरा 'मैं' / रेखा राजवंशी

Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:07, 29 मई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रेखा राजवंशी |संग्रह=अनुभूति के...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काली रात के घुप अँधेरे में
जब मैं और मेरी अस्मिता
एक रूप हो जाते हैं
तो अकेला प्राण
जमा लेता है धूनी
और बन जाता है
चिरंतन जोगी

दिन भर
जुलाहे के करघे के
रुई के फाहों सा
बिखरा बिखरा मन
खोजने लगता है
श्वांसों का विश्वास
कि जिसे छलती रहती है
मृग मरीचिका सी
इसे, उसे, तुम्हें पाने की आस

कि मेरी आस और मैं
एक दुसरे को तलाशते तलाशते
इतनी दूर निकल आते हैं
कि सभी परिकल्पनाएं
सभी सीमाएं
समाप्त हो जाती हैं

और फिर
शेष रहता है एक शून्य
और उस शून्य में
एकाकार
मेरा 'मैं'