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मेरा 'मैं' / रेखा राजवंशी
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काली रात के घुप अँधेरे में
जब मैं और मेरी अस्मिता
एक रूप हो जाते हैं
तो अकेला प्राण
जमा लेता है धूनी
और बन जाता है
चिरंतन जोगी
दिन भर
जुलाहे के करघे के
रुई के फाहों सा
बिखरा बिखरा मन
खोजने लगता है
श्वांसों का विश्वास
कि जिसे छलती रहती है
मृग मरीचिका सी
इसे, उसे, तुम्हें पाने की आस
कि मेरी आस और मैं
एक दुसरे को तलाशते तलाशते
इतनी दूर निकल आते हैं
कि सभी परिकल्पनाएं
सभी सीमाएं
समाप्त हो जाती हैं
और फिर
शेष रहता है एक शून्य
और उस शून्य में
एकाकार
मेरा 'मैं'