भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं डरती हूँ / प्रियंका गुप्ता
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:46, 30 मई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रियंका गुप्ता |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कभी-कभी दर्द
जब हद से गुज़र जाता है
रोना चाहती हूँ मैं
पर रो नहीं पाती
डरती हूँ
कही पड़ोसी
मेरा दर्द जान ना जाएँ
या फिर
मेरे अन्दर की औरत
जाग ना जाए
चीत्कार से
मैं डरती हूँ
क्योंकि
सपनों की लाश
दबी पड़ी है नींव में
औरत जब जागेगी
खोद कर निकालेगी उसे
मेरा घरौंदा बिखर जाएगा
इल्ज़ाम मुझ पर ही आएगा
मैं इसी लिए डरती हूँ
सपनों की मौत पर
अपने दर्द पर
सिर्फ़ हँसती हूँ।