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हथेलियों का सौदा / प्रेम गुप्ता 'मानी'

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दादी माँ
तुम्हें सम्बोधित है यह कविता
क्योंकि
बरसों पहले तुम्हीं ने
सम्बन्धों की ठोस ज़मीन पर
एक 'घर' बनाया था
और अपनी मजबूत हथेली पर
धरी थी उसकी नींव
दादी माँ
याद है तुम्हें वह आँगन?
जिसके बीचोंबीच तुमने
तुलसी-चौरा बनाया था
और रोज सुबह
सूरज के दातुन करने से पहले ही
तुम उसे नहला-धुला कर
फूल-फल का अर्ध्य देकर
सजा-सँवार देती थी
दादी माँ
वह् तुलसी अब बड़ी हो गई है
उस छोटे से आँगन में,
जिसकी ज़मीन दरक गई है
और दीवारों का प्लास्टर उखड़ गया है,
तुलसी के पाँव नहीं समाते
दादी माँ
देखो तो सही
जिस नन्हीं-सी तुलसी को तुमने रोपा था
आँगन उसी के लिए छोटा पड़ गया
दादी माँ,
क्या तुम नहीं जानती थी कि
खंडहरों में तुलसी कभी नहीं पुजती
हाँ दादी माँ...
तुम्हारी बूढ़ी हथेलियों की तरह ही
घर की नींव पर भी दरारें ही दरारें हैं
दादी माँ
इस तरह चुप क्यों हो?
स्वर्ग के सारे सुख पाकर
और नरम बिछौने पर सो कर
क्या तुम भूल गई?
दादी माँ-क्या तुम्हें दुःख नहीं?
तुम्हारी तुलसी बेघर हो गई है
और घर की एक-एक ईंट
टुकड़े-टुकड़े बँट रही है
दादी माँ-सोंचो
इन बँटे टुकडों को जोड़ कर
एक बार फिर
घर बनाने के लिए
क्या तुम
अपनी हथेली नहीं दे सकती?