भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खाली बाल्टियाँ / प्रेम गुप्ता 'मानी'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:36, 30 मई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= प्रेम गुप्ता 'मानी' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी माँ का नाम
लालमणि था
और,
पिता का रंगीलेलाल
मेरी माँ
मेरे पिता के भीतर
घुली हुई थी
एक
पक्के रंग की तरह
पिता का रंग साँवला था
पर चेहरा
दमकता हर क्षण
एक मणि की तरह
किसी इच्छाधारी नाग की
मणि नहीं थी-माँ
पर, इच्छाएँ कैद थी
माँ की गोरी लाल हथेलियों में
माँ ने कभी नहीं चाहा
हवाएँ उनकी कैद में रहें
आकाश आँचल में सिमटे
और,
समुद्र की ठंडी रेत
उनके नर्म तलुओं को सहलाए
माँ ने चाहा था
तो सिर्फ़ इतना कि-
अपने घोंसले में
वह दमकती रहे-एक मणि की तरह
लाल ईंटो वाले आँगन में
माँ की खुशियाँ
ज़िन्दगी के नलके के नीचे रखी
पीतल, लोहे और प्लास्टिक की बाल्टियों में
पानी की तरह भरी हुई थी
पर एक दिन
सूखा पड़ा-धरती फटी
बचपन में सुनी कहानी का दुष्ट राक्षस
सारा पानी पी गया
पिता,
दूर देश गए पानी लेने
और नहीं लौटे
माँ कैसे रुकती?
माँ की ज़िन्दगी जिस पिंजरे में थी
वह पिता साथ ले गए थे
और अब
ईंटो वाले आँगन में घना अँधेरा है
उस अंधेरे के बीच
नलके की सारी बाल्टियाँ खाली हैं...