भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खुलकर हँसना–जीना / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:07, 1 जून 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
खुलकर हँसना–जीना भी जब,
मजबूरी बन जाए
थके हुए रिश्तों का तर्पण
तब बहुत ज़रूरी है ।
काले कोसों कौन बसा है
कौन बसा आँगन में,
सबसे दूर हुआ करती जो
वह मन की दूरी है ।
दर्द भला कैसे समझेंगे
वे पत्थर दिल वाले,
हाथों में भी पत्थर हरदम
फिर समझ अधूरी है ।