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लेनिन ज़िन्दाबाद / बैर्तोल्त ब्रेष्त / सुरेश सलिल

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पहली जंग के दौरान
इटली की सानकार्लोर जेल की एक अन्धी कोठरी में
ठूँस दिया गया एक मुक्तियोद्धा को भी
शराबियों, चोरों और उचक्कों के साथ ।
ख़ाली वक़्त में वह दीवार पर पेंसिल घिसता रहा
लिखता रहा हर्फ़-ब-हर्फ़—
लेनिन ज़िन्दाबाद !

ऊपरी हिस्से में दीवार के
अन्धेरा होने की वज़ह से
नामुमकिन था कुछ भी देख पाना
तब भी चमक रहे थे वे अक्षर— बड़े-बड़े और सुडौल।
जेल के अफ़सरान ने देखा
तो फ़ौरन एक पुताईवाले को बुलवा
बाल्टी-भर क़लई से पुतवा दी वह ख़तरनाक इबारत ।
मगर सफ़ेदी चूँकि अक्षरों के ऊपर ही पोती गई थी
इस बार दीवार पर चमक उठे सफ़ेद अक्षर :
लेनिन ज़िन्दाबाद !

तब एक और पुताईवाला लाया गया ।
बहुत मोटे बुरुश से, पूरी दीवार को
इस बार सुर्ख़ी से वह पोतता रहा बार-बार
जब तक कि नीचे के अक्षर पूरी तरह छिप नहीं गए ।
मगर अगली सुबह
दीवार के सूखते ही, नीचे से फूट पड़े सुर्ख़ अक्षर—
लेनिन ज़िन्दाबाद !

तब जेल के अफ़सरान ने भेजा एक राजमिस्त्री ।
घण्टे-भर तक वह उस पूरी इबारत को
करनी से ख़ुरचता रहा सधे हाथों ।
लेकिन काम के पूरे होते ही
कोठरी की दीवार के ऊपरी हिस्से पर
और भी साफ़ नज़र आने लगी
बेदार बेनज़ीर इबारत—
लेनिन ज़िन्दाबाद !

तब उस मुक्तियोद्धा ने कहा—
अब तुम पूरी दीवार ही उड़ा दो !

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल