अजेय लेखनी / बैर्तोल्त ब्रेष्त / अरुण माहेश्वरी
युद्ध के दौरान
सैन कार्लो के इतालवीं जेल की सेल में
जिसमें बन्दी सैनिक, नशेड़ी और चोर भरे थे
एक समाजवादी सैनिक ने, मिट न सकने वाली पेन्सिल से, दीवार पर खुरच दिया —
लेनिन दीर्घजीवी हों !
ऊँचाई पर, उस नीम-अन्धेरे सेल में, बमुश्किल दिखे, लेकिन
बड़े अक्षरों में लिखा था ।
वार्डन ने देखते ही, एक बालटी चूने के साथ उसे पोत डालने के लिये आदमी भेज दिया ।
और उसने एक लम्बी लकड़ी से बन्धी कूँची से उस डरावने लेखन पर चूना पोत दिया
लेकिन, चूँकि उसने सिर्फ अक्षरों पर चूना पोता था
अब वह सेल में ऊँचा, सफ़ेद चमकने लगा —
लेनिन दीर्घजीवी हो !
फिर एक और रंग करने वाले ने बड़े-से ब्रश से उस पूरी पट्टी को पोत डाला
कई घण्टों तक वह छुपा रह, लेकिन सुबह होते-होते
जैसे ही चूना सूखा, उसके नीचे लिखे अक्षर फिर साफ़-साफ़ दिखाई देने लगे —
लेनिन दीर्घजीवी हों !
तब वार्डन ने उन अक्षरों को खोद देने के लिए छैनी के साथ राजमिस्त्री भेजा
घण्टे भर में उसने एक-एक अक्षर खोद डाला
अब वह बेरंग, लेकिन दीवाल पर उतनी ही ऊँची
गहराई तक खुदी, अजेय लेखनी बन गया —
लेनिन दीर्घजीवी हो !
तब, सैनिक ने वार्डन से कहा —
ढहा दो इस दीवार को !
(1934)
(यह कविता 1917 में बन्दी बनाए गए सैनिक जियोवनी जर्मनेटो द्वारा 1930 में उसकी रिहाई के बाद ज्यूरिख के एक अख़बार को बताई गई सच्ची घटना पर आधारित है।)
अँग्रेज़ी से अनुवाद : अरुण माहेश्वरी