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ऐ साथी मेरे / हरींद्र हिमकर

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साथी मेरे ! क्या गीत प्यार के गाते हो?
क्या गीतों से तुम हँसते और हँसाते हो?
क्या गीतों से तुम रोते और रुलाते हो?
क्या रो-गा कर खाली-खाली हो पाते हो?

क्या तेरे गीतों से जन-मन जग पाता है?
क्या गीतों को सुन प्यार द्वार तक आता है?
क्या गीत तुम्हारे गाँव-गाँव तक जाते हैं?
वे खंजड़ी-वंशी की भाषा बन पाते हैं?

क्या शब्द हुमक कर पर्वत से टकराते हैं?
क्या भाव छमक कर बादल से छा जाते हैं?
फिर क्या तेरे गीतों से वर्षा होती है?
क्या फफक फूट कर कोई बिरहन रोती है?
जिसका पति भागा-भागा दिल्ली जाता है,
मन मार-मार कर रोजी रोज जुटाता है,
कलकत्ते में घोड़े सा रिक्शा खींच रहा,
जो खून-पसीने से बच्चों को सींच रहा,

क्या दृष्टि तुम्हारी उस झुग्गी तक जाती है?
सामंती साँसे जिसको नित झुलसाती हैं ।
लोलुप आँखों के बीच पनपते यौवन को,
दानवी त्रास प्यालों में भर पी जाती हैं ।

वे फटे होंठ औ सटे पेट निर्वसन देह,
तेरी आँखों में कभी टीस बन छाए हैं?
क्या कभी सजल हो देखा निर्जल आँखों को?
क्या कभी भाव के द्वार यहाँ खुल पाए हैं?

यदि हाँ,तो आगे चलो खेत खलिहानों में,
युग-युग से घिसू भूख ओढ़ कर सोया है,
होरी के सपने चूर हुए इन मेड़ों पर,
धनिया ने उसका धीरज सदा संजोया है ।

गोबर कुर्सी के पाँव पकड़ कर ऊँघ रहा,
जब जगता है दरबारी राग सुनाता है,
मुखिया गिरी ने सुखिया के सपने छीने,
कवि पद्म पुरस्कारों पर लार चुआता है ।

छल छद्म फरेबी के आलम में मीत सदा,
ये गीत हमारे सपने सदा जगाते हैं,
अपने हिस्से का प्यार खोजता है जन-मन,
पर गीत प्रीति की कसमें नही निभाता है ।

जब राग अलापोगे खेतों से खानों से,
तो ध्वनि तुम्हारी पर्वत से टकराएगी,
तुम रोज सुबह का सूरज लेकर दौड़ोगे,
तेरे गीतों में श्रम की मस्ती छाएगी ।

ऐ साथी मेरे ! तभी तुम्हारी प्राण प्रिया,
तेरे होंठों के रस में डूब नहाएगी,
तुम भी तैरोगे सप्त स्वरी उन लहरों में,
तेरी रागिनियाँ ही तुझको सहलाएँगी ।
यदि सावन का सुग्गा बसंत का भौंरा बन,
तुमने परखा है कामिनियों या कलियों को,
फिर भटक गए कवि मायावी गलियरों में,
फिर गीत कहाँ से तरल प्यार के गाओगे !
फिर मीत कहाँ से तरल प्यार तुम पाओगे !