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हे आगन्तुक! / कुमार विमलेन्दु सिंह

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हे आगन्तुक! अब कैसे विश्वास दिलाऊँ तुम्हें
यह प्रसार मानवों का ही विश्व है
कैसी क्षीण स्मृति है तुम्हारी
स्वयं ही तो इसकी रचना कि थी तुमने
अब पूछते हो क्या यही विश्व है

हे आगन्तुक! अब यहाँ भावना खोज रहे हो
जानते नहीं, मानव अब समय हो चुका है
अब भावना का काम ही क्या है
अब तो बस रम्य, हेम वर्णी कामना है
इसी के बल पर तो मानव और सभ्य होगा
तुम्हारे विक्रम को भी चुनौती दे सके
अब ऐसा यहाँ सामर्थ्य होगा

हे आगन्तुक! मैं सच कहता हूँ, विश्वास करो
यह अर्धनग्र काया ही स्त्री है
वह दुर्बल काया ही पुरुष है
क्या कहा, तुमने स्त्री को लज्जा, पुरुष को बल दिया
धीरे बोलो अन्यथा प्रकृति पूछेगी
गुण यह सारे गए कहाँ?
हे आगन्तुक! तुम मानते क्यों नहीं
और यह भ्रातृ, मातृ जैसे अनोखे शब्द
क्यों बार-बार दोहरा रहे हो?
जो तथ्य हैं वही समक्ष हैं तुम्हारे
यहाँ कोई भ्रातृ-मातृ नहीं है
यहाँ हर कोई बस सफल या असफल कहलाता है

हे आगन्तुक! तुम व्यर्थ घबरा रहे हो
आगे बढ़ो, अब यहाँ कोई परीक्षा नहीं होती
सब कुछ इतना सरल हो चुका है
यह स्थान अब सुन्दर बन चुका है
सत्य, अहिंसा का उच्चारण करने वाले मूर्ख
अब इस स्थान पर आते भी नहीं

हे आगन्तुक! तुम्हारी आँखों में तो अश्रु हैं
तुम तो रो रहे हो, दुखी हो
आश्चर्य है! ऐसे सभ्भ्रांत समाज को देखकर
तुम्हें रोना क्यों आ रहा है?
मेरा मस्तिष्क यह समझ नहीं पा रहा है
अच्छा! रोना चाहते हो तो रोकर भी देखो
कोई पीड़ा पूछने नहीं आएगा
तुम्हारे दु: ख को हर्ष विषय बनाएगा
क्या कहा? अब यहाँ नहीं आओगे?
जाना चाहते हो तो जाओ लेकिन, जान लो
हमारे जैसा विश्व नहीं बना पाओगे