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हैंगर / बुद्धदेब दासगुप्ता / कुणाल सिंह
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जब भी उसके पास करने को कुछ नहीं होता था
या नीन्द नहीं आती थी लाख कोशिशों के बावजूद
तो वह अलमारी खोल के खड़ा हो जाता था ।
अलमारी खोल के घण्टों वह देखता रहता था
अलमारी के भीतर का संसार ।
दस जोड़ी कमीज़ें, पतलून उसे देखते थे, यहाँ तक कि
अलमारी के दोनों पल्ले भी अभ्यस्त हो गए थे उसके देखने के ।
अन्ततः, धीरे-धीरे अलमारी को उससे प्यार हो गया । एक दिन ज्योंही उसने
पल्ले खोले, भीतर से एक कमीज़ की आस्तीन ने उसे पकड़ लिया
खींच लिया भीतर, अपने आप बन्द हो गए अलमारी के पल्ले और
विभिन्न रंगों की कमीज़ों ने उसे सिखाया कि कैसे
महीने दर महीने
साल दर साल, एक जनम से दूसरे जनम तक
लटका रहा जाता है
सिर्फ़ एक हैंगर के सहारे ।
मूल बांग्ला से अनुवाद : कुणाल सिंह