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कि मैं सम्राट निर्धन हूँ / श्यामनन्दन किशोर

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नहीं हूँ चाँदनी का तन, नहीं हूँ दामिनी का मन,
किसी मृगलोचनी की आँख का घनश्याम उन्मन हूँ,
कि मैं सम्राट निर्धन हूँ!

बहुत आसान है, पाषाण बनकर देव बन जान
कठिन है, मोम-सा गल आदमी को पंथ दिखलान
नहीं वह गीत हूँ जो कागजों पर जड़ लिखा
सुहागिन कोकिला के कंठ का अविराम नंदन हूँ
कि मैं सम्राट...!

मिलन की दो घड़ी बनती जमाने की कथा भीषण,
विरह के वर्ष भी बनते न जग की आँख के दो कण।
नहीं मैं युग कठिन दुख का, नहीं मैं दिन मिलन-सुख का,
किसी की याद से लिपटे हुए बर्बाद दो क्षण हूँ!
कि मैं सम्राट निर्धन हूँ!

किसी मासूम की आहें किसी के गीत बन जातीं,
किसी की कान्त दुर्बलता किसी की प्रीत बन जाती।
पपीहे की पुकारों से न डोला मन कभी पी का,
किसी बेचैन राधा का निठुर निश्चिन्त मोहन हूँ!
कि मैं सम्राट निर्धन हूँ!

(21.3.54)