भुवनेश्वर (शमशेर बहादुर सिंह) / भुवनेश्वर
भुवनेश्वर को याद करते हुए
आदमी रोटी पर ही ज़िन्दा नहीं
तुमसे बढ़कर और किसने
हर सच्चाई को अपनी कड़ुई मुस्कराहट भरी भूख
के अन्दर
जाना होगा ?
पता नहीं तुम कहाँ किस सदाव्रत का हिसाब
किस लोक में
लिख रहे हो
बग़ैर खाए-पिए ...
सिर्फ़ अमरूदों की सी गोरी सुनहरी धूप अंगों की
फ्रेम से उभरती हो कमरे के एकान्त में,
भुवनेश्वर,
जहाँ तुम बुझी हुई आँखों के अन्दर
एजरा पाउण्ड के टुकड़े,
इलियट के बिब्लिकम पीरियड्स
किसी ड्रामाई ख़ाब में,
पॉल क्ली के घरौंदों में, एक फ्रीवर्स की तरह तोड़ देते हो
ख़ाब में ही हंसते हुए !
आह ! बदनसीब शायर, नाटककार, फकीरों में
नव्वाब, गिरहकट
आज़ाद अघोरी साधक !
होठ बीड़ी-सिगरेट की नीलिमा से (चूमे हुए किसी रूप के)
किसी एक काफ़िर शाम में,
किसी क्रास के नीचे
वो दिन, वो दिन ...
धुंधली छतों में बिखर गए हैं
शराब के, शबाब के, दोस्त एहबाब के वो —
वो ‘विटी’ गुनाह-भरे
ख़ूबसूरत बदमाश दिन
चले गए हैं...
हाँ, तपती लहरों में छोड़ गए हैं वो
संगम गोमती दशाश्वमेध के
सैलानियों की बीच
न जाने क्या
एक टूटी हुई नाव की तरह,
जो डूबती भी नहीं, जो सामने हो जैसे,
और कहीं भी नहीं ।