भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बनजारा जब लौटा घर को / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:53, 12 जून 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बनजारा जब लौटा घर को
बन्द उसे सब द्वारा मिले ।
बदले-बदले से उसको सब
जीवन के किरदार मिले ।
नींद अधूरी हिस्से आई
सबको बाँटे थे सपने
गैर किसी को कब माना था
माना था सबको अपने ।
इन अपनों से बनजारे को
घाव बहुत हर बार मिले ।
भोर हुआ तो बाँट दुआएँ
चल देता है बनजारा
रात हुई तो फिर बस्ती में
रुक लेता है बनजारा ।
लादी तक देकर बदले में
सिर्फ़ दर्द -धिक्कार मिले।
आँधी, पानी ,तूफ़ानों में
कब बनजारा टिकता है
मन बावरा कभी ना जाने-
छल-प्रपंच भी बिकता है ।
ठोकर ही इस पार मिली है
ठोकर ही उस पार मिले ।