भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आगम / अरुण कमल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:55, 14 सितम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण कमल }} केश तो बहुत पहले पक गए थे जिन्हें तभी ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

केश तो बहुत पहले पक गए थे

जिन्हें तभी देखता जब आईना हो सामने

और आँखों पर कत्थई घेरे

जो ऎसे नज़र नहीं आते

आवाज़ में भी शायद पानी आ गयाथा

और छाती भी ढलने लगी थी कुछ

पर आज तो हथेली के ऊपर साफ़ दिखी

ढीली हुई चमड़ी भुरभुरी


तो क्या शुरू है अंत?

पास है समय?