भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चाबुक की मार हुई ज़िंदगी / पद्माकर शर्मा 'मैथिल'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:58, 17 जून 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पद्माकर शर्मा 'मैथिल' |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चाबुक की मार हुई ज़िंदगी।
आँधी रफ़्तार हुई ज़िंदगी॥

लाल लाल आँखें तरेरे हैं।
कितनी ख़ूँख़ार हुई ज़िंदगी॥

देख कर ही काँप-काँप जाता हूँ।
ओछे का प्यार हुई ज़िंदगी॥

आकर भी बिन आए चली गई।
गुज़रा इतवार हुई ज़िंदगी॥

मौत ही शायद हो इलाज इसका।
कितनी बीमार हुई ज़िंदगी॥

पढ़ लिया समझ लिया फेंक दिया।
बासी अख़बार हुई ज़िंदगी॥

हम ने तो शबनम के ख़्वाब बुने,
गर्म कोलतार हुई ज़िंदगी॥