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बीत गया दिन उलझनो में / पद्माकर शर्मा 'मैथिल'
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बीत गया दिन उलझनो में।
अब कहाँ पानी इन नलों में॥
जल रहा था शव, हंस रहे थे वो।
हो चुका मातम कुछ पलों में॥
कौन कहता है उड़ रहे हैं हम।
तीर घुस बैठ इन परों में॥
झोलियों में है कुछ विवशताएँ।
छत नहीं मिलती अब घरों में॥
बंद कमरों में नाग फनियाँ हैं।
रो रहे हैं हम कह-कहों में॥
थे सँपेरे जो ले गए मणियाँ।
शेष विष ही है फ़नधरों में॥