भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गरल घोलते रह गये / ओम नीरव
Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:34, 20 जून 2020 का अवतरण
स्नेह को स्वर्ण से तोलते रह गये।
लोग यों ही गरल घोलते रह गये।
प्रीति-मीरा बिकी तो बिकी मोल बिन,
अर्थ-स्वामी खड़े मोलते रह गये।
अश्रु उनके न पोंछे किसी ने कभी,
व्यर्थ ही लोग जय बोलते रह गये।
सौम्यता-सी कली ने न खोले अधर,
मनचलों-से भ्रमर डोलते रह गये।
पोथियों में मिला सच कहीं भी नहीं,
पृष्ठ के पृष्ठ हम खोलते रह गये।
आधार छन्द–वाचिक स्रग्विणी
मापनी–गालगा गालगा-गालगा गालगा