भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समय नहीं है / मंगलेश डबराल

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:23, 20 जून 2020 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


कोई है जो अपनी छायाएँ फेंकता है और अपना चेहरा छिपाता है
कोई है जो मेरे सीने पर सवार हो चुका है
एक रात है जिसने मेरे दिनों पर क़ब्ज़ा कर लिया है
रात की हवा में कोई अँधेरी कोई काली चीज़ उतरती है
और मेरी नींद का दम घोटने लगती है
एक काला बादल मण्डराता हुआ आसमान में बैठ जाता है
और सारी नमी को सोखता रहता है
कोई है जिसने मुझसे मेरा समय छीन लिया है

रोज़ सुबह दरवाज़े पर पड़ा हुआ अख़बार आवाज़ देता है
समय किसी दूसरी तरफ़ चला गया है
हत्याओं नफ़रतों अपशब्दों अश्लीलताओं क्रूर ख़ुशियों की तरफ़
मैं इस सबसे घिर गया हूँ
मेरे दिमाग में समय नहीं रह गया है

रोज़ एक झूठ सच की पोशाक पहन कर सामने लाया जाता है
उसके पीछे सच क्या है मैं इस उधेड़बुन में फँस गया हूँ
हवा में एक बकबकाता हुआ तानाशाह मुंह
मेरी बोलती बंद कर रहा है
मेरी आवाज़ में समय नहीं रह गया है

मेरी पुरानी प्रेयसी तुम जो कई वर्षों के पर्दे लाँघकर
एक महीन याद की तरह आई हो हरे पीले लाल पत्तों के परिधान में
अपनी नीली आभा प्रकट करती हुई
मुझे माफ़ करना कि मेरा दिल कुरूपता से भर दिया गया है
प्यारे दोस्तो माफ़ करना कि मेरी दिशा बदल दी गई है
तुम्हें भी कहीं और धकेल दिया गया है
मेरे जीवन में समय नहीं रह गया है
 
बग़ल में चलते हुए भाइयो बहनो मैं अब तुमसे दूर हूँ
मुझसे कह दिया गया है तुम कोई दूसरे हो
और मेरा अगर कोई शत्रु है तो वह तुममें ही छिपा हुआ है
माफ़ करना कि इन दिनों की कोई काट नहीं है
जीवितों के भीतर जो डगमगाती-सी रौशनी दिखती थी
वह बुझ रही है
और मृतक बहुत चाहते हुए भी कुछ कर नहीं पाते

मेरी जन्मभूमि मेरी पृथ्वी
तुम्हारे भीतर से किसी नदी किसी चिड़िया की आवाज़ नहीं आती
तुम्हारे पेड़ हवा देना बन्द कर रहे हैं
मैं सिर्फ बाज़ार का शोर सुनता हूँ या कोई शंखनाद सिंहनाद
और जब तुम करीब से कुछ कहती हो
तो वह कहीं दूसरे छोर से आती पुकार लगती है
मैं देखता हूँ तुम्हारे भीतर पानी सूख चुका है
तुम्हारे भीतर हवा ख़त्म हो चुकी है
और तुम्हारे समय पर कोई और क़ब्ज़ा कर चुका है।