भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खोना / श्रीधर करुणानिधि

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:49, 20 जून 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीधर करुणानिधि |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उसे कभी भी सड़क पर
किसी गाड़ी के पहिये सा
चलता हुआ पाया जा सकता था
कभी भी उसे गाती चिड़ियों, लहलहाती फ़सलों
और मचलती नदी में ढलते देखा जा सकता था

उसके लिए भूख कोई बड़ा सवाल नहीं थी
लहराती फ़सलों में से किसी भी बाली के दाने
सरसों और सूरजमुखी के फूलों से चुराकर ले गए
रस से भरपूर मधुमक्खी के छत्ते से
शहद की मीठी बून्दें
पानी से लबालब भरे हुए पोखर से
नहाकर निकली किसी मस्त भैस का दूध
खेतों के उस पार की अमराई के सबसे मीठे
आम का रस
कुछ भी उसकी पहुँच के बाहर नहीं था

नीन्द उसके लिए कोई समस्या नहीं थी
उमस से भरी दोपहरी में भी खलिहान में
धान के पुआल पर लेटते हुए
काम करने के बाद सुस्ताते समय
या भिनसरे भैंस की पीठ पर
वह फोंफ काटकर सो सकता था

हंसना उसे ख़ूब आता था
कली से अचानक खिल पड़े फूल की तरह
मकई के भुट्टे की तरह दाँत निकालकर

इधर जाने क्यों वह रहने लगा था बहुत उदास
उसकी नीन्द के क़िस्से भी भूलने लगे थे लोग
भूख उसके लिए समस्या नहीं थी
ऐसा अब नहीं कहा जा सकता
उसके लाल होठों से हंसी फिसलकर गिर गई
और सड़क की धूल में ग़ुम हो गई...
उसने बहुत खोजा इधर-उधर यहाँ-वहाँ ।

पता चला है कि
सूना होते ही किसी ने उठा ली उसकी हंसी
उसकी भूख भी पड़ी थी वहीं
किसी ने उसे नहीं उठाया

समस्या यह नहीं है कि
जिस किसी ने उसकी हंसी उठा ली है
वह वापस नहीं कर रहा
बल्कि इस घटना के बाद से
खेत घूमते, हल चलाते, मेड़ों को सिंचाई
के समय बान्धते वक़्त
या फ़सल की दौनी करते वक़्त
कई लोगों की हंसी फिसलकर गिर गई
और फिर ग़ुम हो गई ।