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कामकाजी कवि का एक दिन / प्रत्यूष चन्द्र मिश्र

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1.

सुबह दफ़्तर पहुँचने की हड़बड़ी के बीच जल्दी-जल्दी होता हूँ तैयार
हड़बड़ी के साथ ही करता हूँ ब्रश, स्नान और नाश्ता
दवाई और टिफ़िन रखता हूँ एक साथ झोले में
बेटे को पहुँचाता हूँ स्कूल, चेक करता हूँ अपना फेसबुक और व्हाटसएप
और तय समय पर दफ़्तर पहुँच कर लगाता हूँ अँगूठा

2.

यह दफ़्तर का पहला घण्टा है
अभी सबसे पहले तैयार करनी है कल की मीटिंग की ‘प्रोसिडिंग’
चिट्ठियों को छाँटना है ज़रूरत के हिसाब से
फ़ाइलों को सजा लेना है टेबल पर ऑपरेटर को देना है डिक्टेशन
‘स्वीकृत्यादेश प्रारूप’ को करना है क्रॉस चेक
सारा ड्राफ़्ट भर लेना है पेन ड्राइव में
सब सजा लेना है इस तरह जैसे
कोई मज़दूर रखता है खेत में अपना कुदाल-हंसिया
दफ़्तर में बॉस की झिड़कियों और सहकर्मियों की शरारतों के बीच
मनुष्य बने रहने की तमाम कोशिशों को जारी रखना है
इन्हीं सब ज़रूरी कामों की तरह

3.

यह लंच का समय है
कैण्टीन में एक साथ प्रकट है भूख और सुख
टिफ़िन के बक्से से निकल रही है स्वाद और साथ की एक परिचित दुनिया
ज़बान से कहकहे और देश-राज्य-समाज की हलचलें
इस घण्टे में रुका हुआ है ऑफ़िस का कार्य-व्यापार
आदमी बना हुआ है थोड़ा आदमी

4.

यह ऑफ़िस का आख़िरी घण्टा है
घर से आ चुकी है सामान की लिस्ट
थैले बाट जोह रहे हैं दूध-फल और सब्ज़ियों की
उत्फुल्लित चेहरे अब बाज़ार के रास्ते में हैं
महँगाई बढ़ी है तो क्या डी०ए० भी तो इस बार पाँच प्रतिशत है
ट्रैफ़िक के शोर में बेटा कर चुका है तीन बार फ़ोन
अपनी मनपसन्द चॉकलेट के लिए
सड़कें, गलियाँ और बाज़ार भरे पड़े हैं लोगों से इस वक़्त
कितने भले लगते हैं काम से घर लौटते लोग

5.

यह वक़्त अब घर की ज़रूरतों को पूरा करने का है
पर चिन्ताएँ कहाँ छोड़ती है आदमी का पीछा
सब्ज़ी वाला कह रहा है कि उसके बीमार बेटे को
निकाल दिया अस्पताल वालों ने बिना इलाज पूरा किए
क्या आप मदद कर सकते हैं ?
मदद करने का भरोसा देते हुए मैं अपनी ही उम्मीद का घोंटता हूँ गला
कल गांव से आए एक आदमी की हाईकोर्ट में ज़रूरी अर्ज़ी दिलवा पाया था
अब वह कई दूसरे काम के लिए मुझसे उम्मीदें पाल बैठा है
ख़ुशी होती है कि किसी के कुछ काम आ सका
पर दिक़्क़त यह है कि यहाँ हर आदमी को
सत्ता से कुछ न कुछ काम लगा ही रहता है
और सत्ता है कि अपने ही तिलिस्मी कुचक्र में आदमी को काटती और बाँटती
चलती है
ऐसे में मदद, उम्मीद, भरोसा ये सारे शब्द एक कवि के सीने में गहरे उतरते दिखाई
देते हैं..

6.

रात का ग्यारह बजा है
खाना खा कर लेटा हूँ आरामदेह बिस्तर पर
पत्नी और बेटे कब के एक सुरक्षित नींद की आगोश में जा चुके
और मैं जगा हुआ हूँ
जगा हुआ है कवि
सोई हुई मनुष्यता को बार-बार जगाने की कोशिश करता हुआ
किसी देश का नहीं मनुष्यता का सिपाही है कवि
नींद और जागरण के बीच अपने होने की सार्थकता को
सिद्ध करता हुआ
कई शहरों में पढ़ा कई जगह की नौकरियाँ
कई दफ़्तरों की छानी ख़ाक
मिला कई-कई लोगों से पर अन्ततः
आदमी बने रहने की मुश्किलें सब जगह एक सी ।