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दोहे - 1 / शोभना 'श्याम'

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ना धन के अम्बार है, नहीं गुणों की खान।
पास बांटने के लिए, छोटी-सी मुस्कान॥

बेटी घर की आन है, बेटी घर की शान।
घर जैसे इक देह है, बेटी उसकी जान॥

नारी भी करती रहे, बाती जैसा काम।
स्वयं जले पर रौशनी, करे दीप के नाम॥

शाख शाख़ पर गिद्ध हैं, नहीँ सुरक्षित छाँव।
बिटिया रख सम्भाल के, घर से बाहर पाँव॥

सिद्ध हुआ है आज फिर, देश में जंगल राज।
तड़प तड़प मैना मरे, जश्न मनाये बाज॥

जिस घर में पूजे गए, देवी के नव रूप।
कन्या मारें कोख में, ऐसे कूप मण्डूक॥

वहशीपन में जुड़ रहे, नए-नए अध्याय।
कन्या कि चीखें बनी, बदले का पर्याय॥

बनी कमाऊ तो हुई, दशा और भी दीन।
घर बाहर के फेर में, औरत बनी मशीन॥

नारी मन की कामना, कब चढ़ती परवान।
मर्यादा के नाम पे, हुई सदा कुर्बान॥

रावण ने सीता हरी, धर साधू का वेश।
अब साधू में हो रहा, रावण का उन्मेष॥