स्वप्न अभी अधूरा है / कौशल किशोर
चलती हुई गोलियों के भय से
टूट कर गिर गईं
खड़खड़ाती पत्तियाँ
फाल्गुन-चैत के बयार में
बासन्ती पल्लव सीने में छिपाए हुए
दर्द की हिलोरें
आज भी अमरोही में दुहरा रहे हैं
बारूदी कथाएँ
वह घायल पंछी
जिसके श्वेत पंख लहूलुहान
गोलियों के घाव
उसके ची, ची, ची के शोर से
भर गया आसमान
वह गा रही है
अपने बिछड़ गये मीत के
विरह गीत!
वे नन्हें-नन्हे पौधे
जिनकी मासूमियत को
बाग की शोभा का नाम दिया जाता था
आज हिरोशिमाई आतंक का शिकार हो
गुम हो रहे हैं
प्यारे मित्र!
तुमने क्या सोचा था
गांव की पगडन्डियों में
शहर की गलियों में
ताल-तल्लैयों में
माटी या रेत का घरौंदा बनाने वाले हाथों को
इस देश में बनाने पड़ेंगे
बारूद के घरौंदे भी
पेडों पर उछल-उछल
कूकूहापात खेलने वालों को
जगह-जगह खेलना पड़ेगा
अग्निपात या रक्तपात भी
मित्र!
तुमने क्या कभी
यह भी सोचा था कि
इंसाफ के लिए मार्च करती हुई
नाबालिग जुलूस के चेहरे पर तैरती
वह विस्फोटक सुबह
उनकी आखिरी सुबह होगी
वह सूरज
उनका आखिरी सूरज होगा
वह दिन
उनका आखिरी दिन होगा
और वह उजाला
उनकी आंखें का आखिरी उजाला होगा?
पटना कि वे लम्बी-लम्बी सड़कें
जिनकी नंगी पीठों पर पुलिस दस्तों के
फौजी बूटों के घाव पिराए गये थे
पटना कि वे ऊँची-ऊँची दीवारें
जिनकी छातियों पर
गोलियों के गहरे निशान रोपे गए थे
अब भी खड़े-खड़े
कफर्यू के सन्नाटे के बीच
दुहराते हैं
देशी आदमखोरों के ज़ुल्म की कहानियाँ
मैं सोचता हूँ
कब्र में बिना कफन
गज भर ज़मीन लिए
जो पड़े हैं
जिनकी अस्थियों की राख
ठण्डी नहीं हुई है अभी तक
उनके लिए ही होगी
यह कविता
उनकी याद को जिन्दा रखेगी
यह कविता
उनसे ही होगा
यह संवाद
जिसका हर शब्द काली स्याही से नहीं
लाल खून से लिखा होगा
जिसमें शोले की गरमी होगी
जो इस बात का गवाह होगा
कि उनके जिस्म के रिसते हुए नासूरों से
बहता हुआ खून
या मवाद अभी हरा है
वे दर्ज होंगे इतिहास में
पर मिलेंगे हमेशा वर्तमान में
लड़ते हुए
और यह कहते हुए कि
स्वप्न अभी अधूरा है।