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अंधकार और अंधकार / कौशल किशोर

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बिजली की जगमगाहट जहाँ तल्लीन है
सफेदी की परत तैयार करने में
ठीक वहीं
मौसम के अन्धेरे का सिक्का जम रहा है
और ठण्ड
रात से कही ज्यादा
दिन उगल रहा है

वक्त के इस दर्दनाक दौर में
एक बार फिर से
वापस आ गई हैं हमारे पास
वे सभी गैरमुमकिन चीजें
जिनकी पताका के नीचे खड़े हो
हमें परेड करनी पड़ी है कई-कई बार

आज मैं देख रहा हूँ
इतिहास के पन्नों पर खून के छींटे
और वहीं मेरा घर एक घटना बन रहा है
हमारे बच्चों की तनी-कसी-बंधी मुट्ठियाँ
किसी संभावित भय से खुल गई हैं
आंखों पर से मिटा दिए गये हैं
दोपहर के रंगीन चित्र
जगह-जगह से उनकी अंगुलियों की शिनाख्त
गायब है
अपने घर की चैखट पर
झुक आई मनहूस शाम के धुंधलके के बीच से
गुजरने के बाद मैंने पाया है
इन दिनों मौसम के थर्मामीटर का पारा
यक-ब-यक काफ़ी नीचे उतर आया है

इस पतझड़ में
ठूंठ दरख़्त के नीच
तलाश करते हुए शीतलता
कितना बड़ा झूठ और ग़लत
स्वीकार कर रहा हूँ मैं
अपने अन्तिम नुस्खे पर आमादा
हड्डी, लहू और मांस निचोड़ती
उस मादा कि नीयत
और उसके चंद विवादास्पद कार्यक्रमों के सामने
शर्म से लटक गई है वक़्त की गर्दन
बाढ़ में डूब गये गांवों को
फेंक दिया गया है
अकाल के बहशी घेरे में।