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गुलामबाड़ी / कौशल किशोर

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धुन्ध और धुन्ध के हिंसक इरादों से घिरने के बाद
आप पूछोगे
और बार-बार मैं यही कहूंगा—
सुरक्षा-समझौते की बात का समय
तेजी से गुजर चुका है
और वह समतल ज़मीन जो कल तक
पनाह-पगार देती थी
आज बदल गई है
जंगल-दर-जंगल में।

यहाँ बाड़ी और गुलामबाड़ी का फासला
कुछ एक कदमों का है
और इस फासले को तय कर
जब आप यहाँ पहुँचोगे
तब आपके अन्दर का कोई दरख़्त टूटेगा
आप बुदबुदाओगे
रह-रह कर ताव खाओगे।

यह पुरजोर आवाज़ मैं सुनता हूँ
जो आपकी ज़ुबान से नहीं
काफी भीतर से उभर रही है
और किसी संभावित विस्फोट तक पहुँचने के लिए
स्वयं में संवर रही है।

मैं जानता हूँ
इस बार का मैकनिज्म काफ़ी ख़ौफ़नाक है
दीवार के प्लास्टर जहां-जहाँ झड़ गए थे
वहाँ नए चूने की चमक है
उन पर बड़े-बड़े पोस्टरों की दमक है
दहशत और आतंक के बीच
इन दिनों फेस्टून से उतर कर लोगबाग
फिर अपनी-अपनी मशीनों पर खड़े हैं
इस तरह एक नया मैकनिज्म तैयार हुआ है।

लेकिन आप अपने भीतर की
भभक इच्छाओं का क्या करोगे
जब वे आपसे अपना अदरावन चाहेंगी
रेलिंग पर दौड़ती बिजली
गर्म चिप्स, गर्म हवा
माहौल की उमस
हथौड़े का बज्रघात
और बहता हुआ लहू-पसीना
इनके बीच क्या आप सुरक्षित हो
या अपने को स्वतंत्र महसूस करते हो।

आप लौट जाओ
वापस लौट जाओ
उन्हीं बियावान जंगलों
और अन्तहीन पठारों की ओर
जिसकी पीठ पर
सबसे पहले पहुँचती है
सूरज की पहली किरण
मसलन गुलामबाड़ी के इन मुक्कमल औजारों की जीभ पर
आपके बेशकीमती लहू का स्वाद बैठ गया है