भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
डीजे की धुन / नरेन्द्र कुमार
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:42, 29 जून 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेन्द्र कुमार |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
डीजे की धुन पर
गँवई लड़के नाच रहे हैं
अबीर उड़ा रहे हैं
रंग मल रहे हैं
अपने हिस्से के दुख से बेख़बर
उधार के शराब-सिगरेट की
खुमारी में डूब रहे हैं
इस घड़ी में
बर्बाद होती फ़सल नहीं है
पिता के फटे जूते नहीं है
माँ की पैबन्द लगी साड़ी नहीं है
अभी वे बेरोज़गार नहीं है
अभी वे लाचार नहीं हैं
कुछ घड़ी बाद
डीजे की धुन धीमी पड़ती है
अन्त में आख़िरी सांस की तरह
टूट जाती है
रंग-बिरंगी लाईटों के बुझते ही
लड़के पसीना पोंछ रहे हैं
फिर से वे बेरोज़गार हैं
फिर से वे लाचार हैं