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सिन्दूरी धूप / उत्तिमा केशरी

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कई दिनों से उदास हैं
शीला की नीली आँखें,
वह अब कतराने लगी है
दवाइयों के प्रहार से।
वह
शेष बची, अल्प ज़िन्दगी को
अपने स्वत्व में जीना चाहती है

शीला का मंगेतर देवांश
जब से तैयार हुआ है
सात फेरे के लिए
चमक उठी हैं
कनपटी के नसें
शाम की सिन्दूरी रोशनी में
और कपोलों में मानो
घुल गया है केसर।

वह
जीवन-मृत्यु के
मिलन के इन क्षणों में
और
पूरे ब्रह्माण्ड को साक्षी रख
समा जाना चाहती है
एक दूजे में।