विदाई में तुम्हारे चेहरे की सलवटें
मुझे सताये जैसे बेघर को गर्म लू
तू रो न सका, मेरे आँसू न रुके
पहाड़ी घाटी में उदास नदी सा तू
छोड़ रहा था चुन्नी काँपते हाथों से
सुना था पुरुष लौह स्तम्भ हैं हूबहू
तेरे मन के कोने मैंने भी रौशन किये
मेरी नजर में मंदिर के दिये सा है तू
चार कदम में कई जीवन जी लिये
अमरत्व को उन्मुख अब यौवन शुरू...