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माँ का प्यार नहीं है / कमलेश द्विवेदी

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यहाँ सभी सुख-सुविधायें हैं लेकिन सुख का सार नहीं है।
मिला शहर में आकर सब कुछ लेकिन माँ का प्यार नहीं है।

घर में खायें या होटल में
मिल जाती है पूरी थाली।
लेकिन यहाँ नहीं मिल पाती
रोटी माँ के हाथों वाली।
तन का सुख है पर मन वाला वह सुखमय संसार नहीं है।
मिला शहर में आकर सब कुछ लेकिन माँ का प्यार नहीं है।

अक्सर सपने में दिख जाते
माँ के पाँव बिंवाई वाले।
धान कूटने में पड़ जाने
वाले वह हाथों के छाले।
फिर भी घर के काम-काज से माँ ने मानी हार नहीं है।
मिला शहर में आकर सब कुछ लेकिन माँ का प्यार नहीं है।

हम सब होली पर रँग खेलें
दीवाली पर दीप जलायें।
बच्चों के सँग हँसी-ख़ुशी से
घर के सब त्यौहार मनायें।
पर सच पूछो तो माँ के बिन कोई भी त्यौहार नहीं है।
मिला शहर में आकर सब कुछ लेकिन माँ का प्यार नहीं है।

बच्चों के सुख की ख़ातिर माँ
जाने क्या-क्या सह लेती है।
हम रहते परिवार साथ ले
पर माँ तनहा रह लेती है।
माँ के धीरज की धरती का कोई पारावार नहीं है।
मिला शहर में आकर सब कुछ लेकिन माँ का प्यार नहीं है।

अपने लिए नहीं जीती माँ
सबके लिए ज़िया करती है।
घर को जोड़े रखने में वो
पुल का काम किया करती है।
माँ के बिना कल्पना घर की करना सही विचार नहीं है।
मिला शहर में आकर सब कुछ लेकिन माँ का प्यार नहीं है।