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दू बुन्न पानि / चंदन कुमार झा

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कतहुसँ खसैत अछि एकटा ढेप
उठि जाइत अछि
शान्त पोखरिमे हिलकोर
पानिक दू टा बुन्न
कूदि कऽ पहुँचि जाइत अछि
पुरनिक पातपर
गुरकय लगैत अछि
एहि कोणसँ ओहि कोण धरि
डगमगाइत पातपर
जेना लागल हो अपनाकेँ
थिर करबाक प्रयासमे

इजोरियामे चमकि उठैछ
मोती सदृश पानिक बुन्न
बिहुँसि उठैछ मलकोका
जानि नहि किएक
ओहि दू-बुन्न पानिक सौन्दर्यपर
आ'कि ओकर असन्तुलित चालिपर
मुदा,पानिक बुन्नकेँ जेना
मलकोका'क हँसि नहि सोहाइत छैक
लाजे कठुआ जाइत छैक ओकर देह
दुनू एक-दोसरमे नुका जाइत अछि

पात फेर डोलि उठैत अछि
थिर नहि भेल होइत छैक
मलकोकहुँकेँ
अस्थिर पानिक दुनू बुन्न
घेंटमे घेंट जोड़ने छछलय लगैए
पातपर एम्हरसँ ओम्हर
जानि नहि किएक
ओकरा छोड़ल नहि जा रहल छैक
पुरनिक कोमल गात
आ'कि छैक व्यग्रता
अपना समष्टिमे सन्हियेबाक
पोखरिक पानिमे मिझरेबाक
वा फेर डेराय गेल अछि
मोहारपर बैसल धामनक फुफकारसँ
किंवा डर छैक एहि बातक जे
प्रात होइतहि सोंखि जेतैक सूर्य
पसरि जेतैक ओकर जीवनमे अन्हार
जानि नहि किएक
डोलि रहलैए ओकर पेटक पानि
जानि नहि किएक
गुरकि रहल अछि पानि दू-बुन्न
पुरनिक पातपर एम्हरसँ ओम्हर