बाजह बौकू! / चंदन कुमार झा
आबह बौकू!
बैसह, बाजह!
गुम्म किएक छह?
ठिके बुझय छह,
न्याय-नयनपर जेँ करिया पट्टी बान्हल अछि,
तेँ चारुभर पसरल ई अन्हार घुप्प अछि।
मुदा, देखह ने!
टिमटिम-टिमटिम आश बरैए
केहन छजैए?
यैह एक दिन बदलि जायत ने ज्योति-पुञ्जमे!
दुष्टक क्रीड़ा देखि, स्वयंसँ-
रुष्ट किएक छह?
आबह बौकू!
बैसह, बाजह!
गुम्म किएक छह?
मानल, झूठक भऽ गेलैए सगरो चलती,
मुदा किओ की कहि सकैए सत्यक गलती?
सत्य, असत् केँ सदा हरौलक, फेर हराओत
विजय पताका फेरो ओकरहि टा फहरायत
मुदा, युद्ध तऽ लड़हि पड़तह
जन-धन किछु उसगरहि पड़तह
शक्ति जगाबह,
रणमे आबह!
सुस्त किएक छह?
आबह बौकू!
बैसह, बाजह!
गुम्म किएक छह?
बूझल, जे तोहर चुप्पीक ककरहु नहि चिन्ता,
तोहर बोली सूनब, धरि से हमर सेहन्ता!
पक्ष-विपक्षक घोल-फचक्का, किछु नहि बूझी,
सदिखन एतबहि गूहाँगिजी!
तोँ बजबह निष्पक्ष, जहिना चिड़ै बजैए
से लुकझुक बिसबास कहैए
जेना लगैए-
तोहर बोली सुनितहि मानवता पुनि जगतीह
हुनक हाक सुनि शान्ति आ शौहार्द घर घुरतीह
कोलाहलकेँ अर्थ भेटत, अनर्थ पड़ायत
अरुणाभामे भोर नहायत
उषा-रेहपर जीवन नाचत
गाबह बौकू!
आबह बौकू
बैसह, बाजह,
जगत-जगाबह,
शोर मेटाबह,
शब्द बचाबह,
बाजह बौकू,
हिया जुड़ाबह!