Last modified on 17 सितम्बर 2008, at 22:40

ताथैं पतित नहीं को अपांवन / रैदास

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:40, 17 सितम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रैदास }} <poem>।। राग विलावल।। ताथैं पतित नहीं को अ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

।। राग विलावल।।
  
ताथैं पतित नहीं को अपांवन। हरि तजि आंनहि ध्यावै रे।
हम अपूजि पूजि भये हरि थैं, नांउं अनूपम गावै रे।। टेक।।
अष्टादस ब्याकरन बखांनै, तीनि काल षट जीता रे।
प्रेम भगति अंतरगति नांहीं, ताथैं धानुक नीका रे।।१।।
ताथैं भलौ स्वांन कौ सत्रु, हरि चरनां चित लावै रे।
मूंवां मुकति बैकुंठा बासा, जीवत इहाँ जस पावै रे।।२।।
हम अपराधी नीच घरि जनमे, कुटंब लोग करैं हासी रे।
कहै रैदास नाम जपि रसनीं, काटै जंम की पासी रे।।३।।