भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फ़ासले मिटते गये नजदीकियाँ अब / कैलाश झा 'किंकर'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:43, 17 जुलाई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कैलाश झा 'किंकर' |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फ़ासले मिटते गये नजदीकियाँ अब।
ख़त्म सारी हो गयीं मजबूरियाँ अब॥

दोस्त दुश्मन साथ बैठेंगे वहाँ पर
कस नहीं सकता है कोई फब्तियाँ अब।

सब सही होंगे ग़लत मसले मुसलसल
ढूँढ़ते रहिएगा उनमें गलतियाँ अब।

झूठ के बल आज तक चलते रहे वो
चारसू होने लगीं सरगोशियाँ अब।

ग़म-ग़लत करने की चाहत है अगर तो
हैं बुलाती रात-दिन अमराइयाँ अब।

सिर्फ सत्ता के लिए लड़ते-झगड़ते
राम तेरी हो रहीं रुसवाइयाँ अब।