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फ़ासले मिटते गये नजदीकियाँ अब / कैलाश झा 'किंकर'
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फ़ासले मिटते गये नजदीकियाँ अब।
ख़त्म सारी हो गयीं मजबूरियाँ अब॥
दोस्त दुश्मन साथ बैठेंगे वहाँ पर
कस नहीं सकता है कोई फब्तियाँ अब।
सब सही होंगे ग़लत मसले मुसलसल
ढूँढ़ते रहिएगा उनमें गलतियाँ अब।
झूठ के बल आज तक चलते रहे वो
चारसू होने लगीं सरगोशियाँ अब।
ग़म-ग़लत करने की चाहत है अगर तो
हैं बुलाती रात-दिन अमराइयाँ अब।
सिर्फ सत्ता के लिए लड़ते-झगड़ते
राम तेरी हो रहीं रुसवाइयाँ अब।