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ततैया का घर / अरुण देव

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घरों में कहीं किसी जगह वह अपना घर बनाती हैं
छत्ते जहाँ उनके अण्डे पलते हैं
उनके पीताभ की कोई आभा नहीं
 
वे बेवजह डँक नहीं मारतीं
आदमी आदमी के विष का इतना अभ्यस्त है कि
डर में रहता है
स्त्रियों के भय को समझा जा सकता है
उनके ऊपर तो वैसे ही चुभे हुए डँक हैं
 
छत्ते जो दीवार में कहीं लटके रहते हैं
गिरा दिए जाते हैं
छिड़क कर मिट्टी का तेल जला दिया जाता है
उनके नवजात मर जाते हैं
 
घर में कोई और घर कैसे ?
 
वे इधर उधर उड़ती हैं
जगह खोजती हैं
फिर बनाती हैं अपना घर अब और आड़ में
 
विष तो है
कहाँ है वह ?