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समय अधर ने चुप्पी साधी / गीता पंडित

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समय अधर ने
चुप्पी साधी
आँख मगर हर बोल रही है

पंक्ति है हर
आम आदमी
चिंता के वस्त्रों को पहने
सुबह शाम तक बिलखाती है
भूख बनी
मंत्रित से गहने

चाल समय की
धमधम करके
अपने को ही खोल रही है
आँख मगर हर बोल रही है

रोटी जिसका
सपना केवल
वह मजदूरी चौंक रही है
कालेधन की डायन आकर
छुरा पीठ में
भोंक रही है

आज व्यवस्था
की लाचारी
शायद ख़ुद में झोल रही है।
आँख हरेक पर बोल रही है।

जान रहा है समय
कि कल वह
बन इतिहास लिखेगा जीवन
कैसे ख़ुद को देखेगा तब
रक्त में डूबा
अपना तन मन

वर्तमान की देह
अभी भी
देखो कैसी खौल रही है।
आँख हरेक पर बोल रही है।