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मन / शमशेर बहादुर सिंह

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मोह मीन गगन लोक में
बिछल रही
लोप हो कभी अलोप हो कभी
छल रही।
मन विमुग्ध
नीलिमामयी परिक्रमा लिये,
पृथ्वी-सा घूमता
घूमता
 (दिव्यधूम तप्त वह)
जाने किन किरणों को चूमता,
झूमता-
जाने किन...
मुग्ध लोल व्योम में
मौन वृत्त भाव में रमा
मन,
मोह के गगन विलोकता
भाव-नीर में अलोप हो
कभी
लोप हो,
जाने क्या लोकता
मन!