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बहइ पुरवइया दुआर हो ! / ओम निश्चल

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लोकवार्ता और लोकधुनों के रसिक प्रभात पांडेय कोलकाता
और कवयित्री व लोक गायिका सुधी इन्दुबाला शंकर जी के लिए

बहइ पुरवइया दुआर हो
भादों कै रात अन्हियार हो ।

बरसइ झकाझोर ऊपर से पानी
चुवै मढ़इया चुवै लागी छानी
फूटल बा आपन लिलार हो ।
भादों कै रात अन्हियार हो ।

घर मा न मनई न रान्हा‍ परोसन
केहिका से कही जाई दुखड़ा ई आपन
डूबि जाई छपरा-ओसार हो ।
भादों कै रात अन्हियार हो ।

गांठ गांठ भरि गइले खेतवा मा पानी
अबकी तौ बूूड़़ि गइल जानौ किसानी
सून रहिहैं बखरी-बखार हो ।
भादो कै रात अन्हियार हो ।

बीत गइले सावन सजन नहीं अइलें
रेलिया बैरिया भी रहिया भुलइले
फीक लागय तीज-त्योहार हो ।
भादों कै रात अन्हियार हो ।

दुनिया में फैली बा कइसी बीमारी
रिस्ता औ नाता न न्यौता हँकारी
दुनिया ई भइले उजाड़ हो ।
भादों कै रात अन्हि़यार हो ।