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वर्षा में / सुदीप पाख्रिन / चन्द्र गुरुङ

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वर्षा में...
असभ्य नदियाँ
अपने बहाव को छोड़ते
किनारों से उठती हैं
और
कूदती हैं छतों के ऊपर से
गलियों में
चौक में, बिना हिचकिचाहट ।

वर्षा में...
नंगी नदियाँ
तटों पे चढ़ कर
सतह से दौड़ती हैं
और
उमड़ती हैं इन्सान के ऊपर
बस्तियों में
गाँव में, निर्लज्ज ।

वर्षा में...
अस्पष्ट, बिना आँख वाली
मृत्यु की छाया सलसलाती है
पानी में ।
वर्षा में...
मृत्यु ख़ुद गरजती हुई
बहती है पानी में ।

वर्षा में ही तो...
कुएँ के अन्दर मेंढक
घमण्ड से
टर्र-टर्र करते हैं उद्धत
केवल ख़ुद के बडा होने के भ्रम को
बनाए फिरते हैं
वर्षा में ।

इस कारण -–
वर्षा में...
जो बोलना चाहते हैं न बोले
वर्षा के झर... झर... में
बोलने का औचित्य कहाँ होता है ???