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शपथ - 1 / अमिताभ रंजन झा 'प्रवासी'
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भारत के राजनीतिज्ञों का आज चित्र विचित्र है।
ह्रदय में है कालिख, निम्न उनका चरित्र है॥
अनुराग विद्वेष के बिना कर्त्तव्य की शपथ खाते हैं।
कैसा शपथ है सोच ये मन ही मन मुस्कराते हैं॥
नोच रहे देश वह जैसे निर्मम चील हैं।
देस लिटा सलीब पर ठोंक रहे कील हैं॥
सफ़ेद है लिबास किन्तु दुष्कर्म जघन्य है।
क्षमा प्रार्थना भी अपराध अक्षम्य है॥
अशिक्षा, गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार हमें उपहार है।
सहन अब न हो हमें नए अवतार का इन्तजार है॥