दमुआँ के बापू आज पाठशाला आये।
भरी समस्त देह खुजली से छूटे गन्दी बास
उकरू बैठ गए कुर्सी पर अध्यापक के पास
पिछौरा लटकाए।
उड़ा मक्खियाँ लट्ठ टेककर बोले लेकर साँस
भई न क्यों अब तक दमुआँ कौ एकौ पोथी पास॥
बीस दिन है आये।
कैसी करौ पढ़ाई मुंशी कैसी माँगों फीस
खतहू दमुआँ बाँचि न आबै गुजरी गए दिन बीस
नाम कौ लिखवाए।
ऐसो ढंग लगै तुमने है करी न कोसित नेक
अब इक पोथी खतम करौ तो देऊँ अठन्नी एक
और दुइ निसराये।
तीन बीड़ियाँ दे दमुआँ को बोले आगी लाउ
एक हमैं, इक मुंसी कौ दै अरु इक तू सुलगाउ
चिलम हम नाइ लाये।
हँसी आ गयी मुझको सारा क्रोध हो गया नष्ट
बोला और बैठने का अब आप न करिए कष्ट
चार बजने आये।
8बहुत मैं चाहता हूँ दर्द अंतर से नहीं जाता।
ये वह मेहमान है जो जल्द ही घर से नहीं जाता॥
तुम्हीं बस हो न मनमौजी तुम्हारा चित्र भी तो है।
किसी उर से चला जाता किसी उर से नहीं जाता॥
कहीं वह अपनी भूलों पर न लज्जित हों मेरे सम्मुख।
मैं उनके सामने अक्सर इसी डर से नहीं जाता॥
समय-कुसमय मैं जो भी देखता हूँ कह ही देता हूँ।
मैं वह बादल हूँ मित्रो जो बिना बरसे नहीं जाता॥
जो मुझसे शहर में बसने की कहते हैं वे ये सुन लें।
कोई भी हंस मोती छोड़ सरवर से नहीं जाता॥
किसी का जो न हो पाया उसे अपना बनाता हूँ।
यही आरोप है जो आज तक सर से नहीं जाता॥
अगर आएगी लेने मौत तो मैं साफ़ कह दूँगा।
'भूप' आता है आदर से निरादर से नहीं जाता॥