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ग़ज़ल / भूपराम शर्मा भूप

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बहुत मैं चाहता हूँ दर्द अंतर से नहीं जाता।
ये वह मेहमान है जो जल्द ही घर से नहीं जाता॥

तुम्हीं बस हो न मनमौजी तुम्हारा चित्र भी तो है।
किसी उर से चला जाता किसी उर से नहीं जाता॥

कहीं वह अपनी भूलों पर न लज्जित हों मेरे सम्मुख।
मैं उनके सामने अक्सर इसी डर से नहीं जाता॥

समय-कुसमय मैं जो भी देखता हूँ कह ही देता हूँ।
मैं वह बादल हूँ मित्रो जो बिना बरसे नहीं जाता॥

जो मुझसे शहर में बसने की कहते हैं वे ये सुन लें।
कोई भी हंस मोती छोड़ सरवर से नहीं जाता॥

किसी का जो न हो पाया उसे अपना बनाता हूँ।
यही आरोप है जो आज तक सर से नहीं जाता॥

अगर आएगी लेने मौत तो मैं साफ़ कह दूँगा।
 'भूप' आता है आदर से निरादर से नहीं जाता॥