निर्धन की होली / भूपराम शर्मा भूप
निर्धन की कैसे होली हो।
इक मुठी न गेहूँ का आटा, घी भी घर में इक परी नहीं
चक्की रोती है डीक मार एक भी कौर से भरी नहीं
बच्चे कहते 'अम्मा तूने क्यों पुरी कचौरी करी नहीं'
माँ की छाती में तीर सदृश बच्चों की लगती बोली हो।
निर्धन की कैसे होली हो।
'हम आद न थायेंगे लोती' बच्चों की सुन तुतली बानी
आँखों में खारे अश्रु लिए कहती उनसे घर की रानी
'निर्धनी के धन संतोष करो, ये ही खाकर पीलो पानी'
लेकिन संतोष करें कैसे, पिचकियाँ लिए हमजोली हो।
निर्धन की कैसे होली हो।
मैले दुर्गंधित चिथड़ों में लिपटा तो तन का अस्थि जाल
रहते हों सदा सुहागिन के इस दिन भी जब बिनकढ़े बाल
शृंगार प्रसाधन कौन करे जब लाज बचाना हो मुहाल
बिखरी हो धोती तार-तार औ फटी पुरानी चोली हो।
निर्धन की कैसे होली हो।
घर का स्वामी आज भी मजूरी करने निकल पड़ा घर से
क्या करता था मजबूर बहुत अपने उस मालिक की के डर से
मिल सका न अपनों से होली बंध गया हिचकियों कब स्वर से
मर जाऊँ मैं भी अगर कहीं खाने की विष की गोली हो।
निर्धन की कैसे होली हो।
सब रंग खेलने को आतुर पुड़िया रंग की जल में घोली
कोई अबीर, कोई गुलाल, कोई है मसल रहा रोली
कोई गाँजा, कोई सुल्फा, कोई खाता भंग की गोली
पर आज अभावों के घर में कैसे रंगीन ठिठोली हो।
निर्धन की कैसे होली हो।